उन्नीसवां अध्याय

 

पितरोंकी विजय

 

महान् ऋषि वामदेवके द्वारा दिव्य ज्वाला को, द्रष्ट्संकल्प (Seer-Will) को, 'अग्नि'को, संबोधित किये गये सूक्त ऋग्वेदके उन सूक्तोंमेंसे हैं जो अधिक-से-अधिक रहस्यवादी उद्गारवाले हैं और यदि हम ऋषियों द्वारा प्रयुक्तकी गयी अर्थपूर्ण अलंकारोंकी पद्धतिको दृढ़तापूर्वक अपने मनोंमें बैठा लेवें तो ये सूक्त अपने अभिप्रायमें बिलकुल सरल हो जाते हैं । किन्तु यदि हम ऐसा न कर सकें तो ये हमें बेशक ऐसे प्रतीत होंगे मानो ये केवल शब्दरूपकोकी चमक-दमकवाली एक धुन्धमात्र हैं, जो हमारी समझको चक्कर-में डाल देते हैं । पाठकको प्रतिक्षण उस नियत संकेत-पद्धतिको काममें लाना होता है जो वेदमंत्रोंके आशयको खोलनेकी चाबी है; नहीं तो वह उतना ही अधिक धाटेमें रहेगा, जितना कि वह रहता है जो तत्त्वज्ञान-शास्त्रको पढ़ना चाहता है पर जिसने उन दार्शनिक पारिभाषिक-संज्ञाओके अभिप्रायको अच्छी तरह नहीं समझा जो उ शास्त्रमें सतत रूपसे प्रयुक्त होती हैं, अथवा हम यह कहें कि जितना वह रहता है जो पाणिनिके सूत्रोंको पढ़नेकेयत्न करता है पर यह नहीं जानता कि व्याकरणसंबंधी संकेतोंकी वह विशेष पद्धति क्या है जिसमें वे सूत्र प्रकट किये गये हैं । तो भी आशा है वैदिक रूपकोंकी इस पद्धति पर पहले ही हम पर्याप्त प्रकाश प्राप्त कर चुके हैं, जिससे कि वामदेव हमें मानवीय पूर्वपितरोंके महाकार्यके विषयमें क्या कहना चाहता है इसे हम काफी अच्छी तरह समझ सकते हैं ।

 

प्रारम्भमें अपने मनमें यह बात बैठा लेनेके लिये कि वह महाकार्य क्या था, हम उन स्पष्ट तथा स्वतः-पर्याप्त सूत्र-वचनोंको अपने सामने रख सकते हैं जिनमें पराशर शाक्त्यने उन विचारोंको प्रकट किया है । 'हमारे पितरोंने अपने शब्दों द्वारा (उक्थै: ) अचल तथा दृढ़ स्थानोंको तोड़कर खोल दिया; तुम अगिरसोंने अपनी आवाजसे (रवेण ) पहाड़ीको तोड़कर खोल दिया; उन्होंने हमारे अंदर महान् द्यौके लिये मार्ग बना दिया; उन्होंने दिनको, स्वःको और अन्तर्दर्शन (Vision) ) को और जगमगानेवाली गौओंको पा लिया ।'

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चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अह: स्यर्विविदुः केतुमुस्त्रा; ।। (ऋ. 1 .71 .2 )1

 

यह मार्ग, वह कहता है, वह मार्ग है जो अमरताकी ओर ले जाता है; 'उन्होंने जो उन सब वस्तुओंके अन्दर जा घुसे थे जो यथार्थ फल देने-वाली हैं, अमरताकी तरफ ले जानेवाला मार्ग बनाया; महत्ताके द्वारा तथा महान् (देवों ) के द्वारा पृथिवी उनके लिये विस्तीर्ण होकर खड़ी हो गयी, माता अदिति अपने पुत्रोंके साथ उन्हें थामनेके लिये आयी (या, उसने अपने-आपको प्रकट किया )' (ऋ1.72.92 ) । कहनेका अभिप्राय यह है कि भौतिक सत्ता ऊपरके असीम स्तरोंकी महत्तासे आविष्ट होकर तथा उन महान् देवताओंकी शक्तिसे आविष्ट होकर जो उन स्तरों पर शासन करते हैं,  अपनी सीमाओंको तोड़ डालती है, प्रकाशको लेनेके लिये खुल जाती है और अपनी इस नवीन विस्तीर्णतामे वह असीम चेतना 'माता अदिति'के द्वारा तथा उसके पुत्रों, परदेवकी दिव्य शक्तियों द्वारा थामी जाती है । यह है वैदिक अमरता ।

 

इस प्राप्ति तथा विस्तीर्णताके उपाय भी पराशरने अति संक्षेपसे अपनो रहस्यमयी, पर फिर भी स्पष्ट और हृदयस्पर्शी शैलीमें प्रतिपादित कर दिये हैं । 'उन्होंने सत्यको धारण किया, उन्होंने इसके विचारको समृद्ध किया; तभी वस्तुत: उन्होंने, अभीप्सा करती हुई आत्माओंने (अर्य: ) इसे विचारमें धारण करते हुए, अपनी सारी सत्तामें फैले हुए इसे थामा ।'

 

दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिध्वो विभृत्रा: । (ऋ. 1. 71 .3 )

 

'विभृत्रा:'में जो अलंकार है वह सत्यके विचारको हमारी सत्ताके सारे ततत्वोंमें थामनेको सूचित करता है, अथवा यदि इसे सामान्य वैदिक रूपकमें रखें, तो इस रूपमें कह सकते हैं कि यह सात-सिरोवाले विचारको सातोंके सातों जलोंके अन्दर धारण करनेको, अप्सु धियं धिपे, सूचित करता है, जैसा कि अन्यत्र इसे हम लगभग ऐसी ही भाषामें प्रकट किया गया देख चुके हैं । यह इस अलकारमय वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है जो तुरन्त इसके बाद इसी ऋचाके उत्तरार्द्धमें आया है,-'जो कर्मके करनेवाले हैं वे तृष्णा-

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. यह पूरा मंत्र इस प्रकार है-

 वीळु चिद् दृळहा पितरो न उक्यैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण ।

 क्रुर्दिवो वृहतो गासुमस्मे अहः स्यर्विविदु: केतुस्रा:  ।।

2. आ ये विश्वा स्यपत्यानि तस्थः कुष्यानासो अमृतत्याय गातुम् ।

  ह्ना महद्धि: पृथिवी वि तस्ये माता पुत्रैरदितिधार्यसे वेः ।।

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रहित (जलों ) की तरफ जाते हैं, जो जल आनन्दको तुष्टि द्वारा दिव्य जन्मों-को बढ़ानेवाले हैं',

 

तृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्ती: ।

 

तुष्टि पायी हुई सप्तविध सत्य-सत्तामें रहनेवाली सप्तविध सत्य-चेतनार आनन्दको पानेके लिये जो आत्माकी भूख है उसे शांत करके हमारे अन्दर दिव्य जन्मोंको बढ़ाती है, यह है अमरताकी वृद्धि । यह है दिव्य सत्ता, दिव्य प्रकाश और दिव्य सुखके उस त्रैतका व्यक्तीकरण जिसे बादमें चलकर वेदान्तियोंने सच्चिदानन्द कहा है ।

 

सत्यके इस विराट् फैलावके तथा हमारे अन्दर सब दिव्यताओकी उत्पत्ति तथा क्रियाके (जो हमारे वर्तमान सीमित मर्त्य जीवनके. स्थान पर हमें व्यापक और अमर जीवन प्राप्त हो जानेका आश्वासन दिलानेवाले हैं ) अभिप्रायको पराशरने 1 .68 में और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है । 'अग्नि', दिव्य द्रष्टृ-संकल्प (Seer-Will) ) का वर्णन इस रूपमें किया गया है कि वह द्युलोकमें आरोहण करता है तथा उस सबमेंसे जो स्थिर है और उस सबमें-से जो चंचल है रात्रियोंके पर्देको समेट देता है, 'जब वह ऐसा एक देव हो जाता है कि अपनी सत्ताकी महिमासे इन सब दिव्यताओंको चारों ओरसे घेर लेता है ।'1

 

''तभी वस्तुत: सब संकल्पको (या कर्मको ) स्वीकार करते हैं और उसके साथ संसक्त हो जातें हैं,  जब हे देव ! तू शुष्कतामेंसे ( अर्थात् भौतिक सत्तामेंसे, जिसे एक ऐसी मरुभूमि कहा गया है जो सत्यकी धाराओंसे असिञ्चित है ) एक सजीव आत्माके रूपमें पैदा हो जाता है, सब अपनी गतियों द्वारा सत्य तथा अमरताको अधिगत करते हुए दिव्यताका आनन्द लेते हैं ।"2

 

भजन्त विश्वे देवत्वं नाम, ऋतं सपन्तो अमृतमेवै: ।

 

"सत्यकी प्रेरणा, सत्यका विचार एक व्यापक जीवन हो जाता है (या सारे जीवनको व्याप्त कर लेता है ), और इसमें सब अपनी क्रियाओंको पूर्ण करते हैं ।''

 

तस्य प्रेषा ऋतस्य धीति र्विश्वायुर्विश्वे अपांसि चक्रुः । (ऋ. 1 .68.3 ) ।

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1.श्रीणन् उप स्थाद् दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून् वयूर्णोत् ।

  ''परि थदेषामेको विश्येषां भुवद्देवो देवानां महित्वा'' ।। (. 1.68.1 )

2. आदित्ते विश्वे ऋतं जुषन्त शुष्काधद्देव जीवो अनिष्ठा: ।

  भजन्त विश्ये देचत्वं नाम तं सपन्तो अमृतमेवैः ।। (ऋ. 1.68.2 )

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और वेदकी उस दुर्भाग्यपूर्ण भ्रांत व्याख्याके शिकार होकर जिसे यूरो-पीय पाण्डित्यने आधुनिक मन पर थोप रखा है, कहीं हम अपने मनमें यह विचार न बना लें कि ये पंजाबकी ही सात भूमिष्ठ नदियां हैं जो मानव पूर्व-पितरोंके अतिलौकिक महाकार्यमें काम आती हैं, इसके लिये हमें ध्यान देना चाहिये कि पराशर अपनी स्पष्ट और प्रकाशकारिणी शैलीमें इन सात नदियोंके बारेमें क्या. कहता है । ''सत्यकी प्रीणयित्री गौओंने ( 'धेनवः', एक रूपक है जो नदियोंके लिये प्रयुक्त किया गया है, जब कि 'गावः' या 'उस्राः' शब्द सूर्यकी प्रकाशमान गौओंको प्रकट करता है ) रभाते हुए, सुख-मय ऊधसोंसे उसकी पालनाकी, उन्होंने द्यौमें आनन्द लिया; सुविचारको सर्वोच्च ( लोक ) से वर रूपमें प्राप्त करके नदियां पहाड़ीके ऊपर विस्तीर्ण होकर तथा समताके साथ प्रवाहित हुई'',

 

ऋतस्य हि धेनवो वशाना:, स्मदूध्नी: पीपयन्त द्युभक्ता: ।

परावतः सुमतिं भिक्षमाणा वि सिन्धवः समया सस्रुरद्रिम् ।। ( ऋ. 1.73.6 )

 

और 1.72 8मे एक ऐसी शब्दावलिमें उनका वर्णन करता हुआ जो दूसरे सूक्तोंमें नदियोंके लिये प्रयुक्त हुई है, वह कहता है, ''विचारको यथार्थ रूपसे रखनेवाली, सत्यको जाननेवाली, द्यौकी सात शक्तिशाली नदियों ने आनन्दके द्वारोंको ज्ञान में प्रत्यक्ष किया, 'सरमा'ने जगमगाती गौओंके दृत्वको, विस्तारको पा लिया; उसके द्वारा मानषी प्रजा आनन्द भोगती है ।''

 

स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्व:,  रायो दुरो व्यृतला अजानन् ।

    विदद् गव्यं सरमा द्मूर्व, येना नु क मानुषी भोजते विट् ।।

 

स्पष्ट ही ये पंजाबकी नदियां नहीं हैं बल्कि आकाश ( द्यौ ) की नदियां हैं,  सत्यकी धाराएं है1 सरस्वती जैसी देवियां हैं जो ज्ञानमें सत्यसे युक्त हैं और जो इस सत्यके द्वारा मानुषी प्रजाके लिये आनन्दके द्वारोंको खोल देती हैं । यहाँ भी हम वही देखते हैं,  जिसपर मैं पहले ही बल दे चुका हूँ, कि गौओंके ढूं निकाले जानेमें तथा नदियोंके बह निकलनेमें एक गहरा सम्बन्ध है; ये दोनों एक ही कार्यके, महाकार्यके .अंगभूत हैं, और वह है मनुष्यों द्वारा सत्य तथा अमृतकी प्राप्तिका महाकार्य, तं सपन्तो अमृतमेवै: ।

 

अब यह पूर्णतया स्पष्ट है कि अगिरसोंका महाकार्य है सत्य तथा अमरता की विजय; 'स्व:' जिसे महान् लोक, वृहद् द्यौ:, भी कहा गया है सत्यका 

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1. देखो ॠ.  1.32.8 में हिरण्स्तूप अंगिरस 'वृत्र'से मुक्त होकर आये हुए जलोंका इस

  रूपमें वर्णन करता है कि वे ''मनकी और आरोहण करते हैं'', मनो रुहाणा:  और

  अन्यत्र वे इस रूपमें कहे गये है कि ये वे जल है जो अबने अन्दर ज्ञानको रखते है,

  पो विचेतस: (1 .88. 1)  ।

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लोक है जो सामान्य द्यौ और पृथिवीसे ऊपर है, जो द्यौ तथा पृथिवी इसके सिवाय और कुछ नहीं हो सकते कि ये सामान्य मानसिक तथा भौतिक सत्ता हों; बृहत् द्यौका मार्ग, सत्यका मार्ग जिसे अंगिरसोंने रचा है और सरमाने जिसका अनुसरण किया है वह मार्ग है जो अमरताकी तरफ ले जाता है, अमृतत्वाय गातुम्; उषाका दर्शन (केतु ), अंगिरसों द्वारा जीता गया दिन वह अन्तर्दर्शन है जो सत्य-चेतनाको अपने स्वभावसे ही होता है; सूर्य तथा उषाकी जगमगाती हुई गौएं, जो पणियोंसे जबर्दस्ती छीनी गयी हैं, इसी सत्य-चेतनाकी ज्योतिया हैं जो सत्यके विचार, ऋतस्य धीतिःको रचनेमें सहायक होती हैं, यह सत्यका विचार अयास्यके सात-सिरोंवाले विचारमें पूर्ण होता है; वेदकी रात्रि मर्त्य सत्ताकी अंघकारावृत चेतना है जिसमें सत्य अवचेतन बना हुआ है, पहाड़ीकी गुफामें छिपा हुआ है; रात्रिके इस अंधकारमें पड़े हुए खोये सूर्यकी पुनःप्राप्तिका अभिप्राय है अंधकारपूर्ण अवचेतन अवस्थामेंसे सत्यके सूर्यकी पुन:प्राप्ति; और सात नदियोंके भूमिकी ओर अधःप्रवाह होनेका मतलब होना चाहिये हमारी सत्ताके सप्तगुण तत्त्वकी उस प्रकारकी बहि:प्रवाही क्रिया जैसी वह दिव्य या अमर सत्ताके सत्यमें व्यवस्थितकी जा चुकी है । और फिर इसी प्रकार, पणि होने चाहियें वे शक्तियां जो सत्यको अवचेतन अवस्थामेंसे बाहर निकलनेसे रोकती हैं और जो सतत रूपसे इस (सत्य ) के प्रकाशोको मनुष्यके पास से चुरानेका प्रयत्न करती हैं और मनुष्यको फिरसे रात्रिमें ढकेल देती हैं और वृत्र वह शक्ति होनी चाहिये जो सत्यकी प्रकाशमान नदियोंकी स्वच्छन्द गतिमें बाधा डालती है और उसे रोकती है, हमारे अंदर सत्यकी अन्तःप्रेरणा, ॠतस्य प्रेषामें बाधा पहुंचाती है, उस ज्योतिर्मयी अन्त:प्रेरणा, ज्योतिर्मयीम् इषम्में जो हमें रात्रिसे पार कराके अमरता प्राप्त करा सकती है । और इसके विप-रीत, देवता, 'अदिति'के पुत्र, होने चाहियें वे प्रकाशमयी दिव्यशक्तियां जो असीम चेतना 'अदिति'से पैदा होती हैं, जिनकी रचना और क्रिया हमारी मानवीय तथा मर्त्य सत्ताके अंदर आवश्यक हैं, जिससे कि हम विकसित होते-होते दिव्य रूपमें, देवकी सत्ता (देवत्वम्) में परिणत हो जायं, जो कि अमरताकी अवस्था है । 'अग्नि' सत्य-चेतनामय द्रष्टृ-संकल्प है, वह प्रधान देवता है जो हमें यज्ञको सफलतापूर्वक करनेमें समर्थ बना देता है; वह यज्ञ-को सत्यके मार्ग पर ले जाता है, वह संग्रामका योद्धा है, कर्मका अनुष्ठाता है और अपने अंदर अन्य सब दिव्यताओंको ग्रहण किये हुए उस 'अग्नि'की हमारे अंदर एकता तथा व्यापकताका होना ही अमरताका आधार है । सत्यका लोक जहां हम पहुंचते हैं उसका अपना घर है तथा अन्य देवोंका

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अपना घर है और वही मनुष्यके आत्माका अंतिम प्राप्तव्य धर है । और यह अमरता वर्णितकी गयी है एक परम सुख के रूपमें, असीम आत्मिक संपत्ति तथा समृद्धिकी अवस्था, रत्न, रयि, राधस् आदिके रूपमें, हमारे दिव्य घरके खुलनेवाले द्वार हैं आनंद-समृद्धिके द्वार, रायो दूर:, वे दिव्य द्वार जो उनके लिये झूलते हुए सपाट खुल जाते हैं जो सत्यको बढ़ानेवाले (ऋतावृध: ) हैं, और जिन द्वारोंको हमारे लिये सरस्वतीने और इसकी बहिनोंने, सात सरिताओंने, सरमाने खोजा है; इन द्वारोंकी तरफ और उस विशाल चरागाह (क्षेत्र ) की तरफ जो विस्तीर्ण सत्यकी निर्बाध तथा सम निःसीमताओमें स्थित है बृहस्पति और इन्द्र चमकीली गौओंको ऊपरकी ओर ले जाते हैं ।

 

इन विचारोंको यदि हम स्पष्टतया अपने मनोंमें गड़ा लेवें तो हम इस योग्य हो जायंगे कि वामदेवकी ऋचाओंको समझ सकें, जो उसी विचार-सामग्रीको प्रतीकमयी भाषामें बार-बार दोहराती हैं जिसे पराशरने अपेक्षाकृत अधिक खुले तौर पर व्यक्त कर दिया है । वामदेवके प्रारंभिक सूक्त 'अग्नि1-को, द्रष्ट्र-संकल्पको ही संबोधित किये गये हैं । उसका इस रूपमें स्तुति-गान किया गया है कि वह मनुष्यके यज्ञका बंधु या निर्माता है, जो मनुष्य-को साक्षाद् दर्शन (Vision) के प्रति, ज्ञान (केतु ) के प्रति जागृत करता है, स चेतयन् मनुषो यज्ञबन्धुः (ऋ. 4.1 .9 ) । ऐसा करता हुआ, ''वह इस मनुष्यके द्वारोंवाले घरोंमें कार्यसिद्धिके लिये प्रयत्न करता हुआ निवास करता है; वह जो देव है, मर्त्यकी कार्यसिद्धिमें साधन बननेके लिये आया है ।

'' स क्षेति अस्प दुर्यासु साधन् देवो मर्तस्य सधनित्वमाप ।। (4. 1. 9 )

 

वह क्या है जिसे यह सिद्ध करता है ? यह अगली ॠचा हमें बताती है । ''यह 'अग्नि' जानता हुआ हमें अपने उस आनंदकी तरफ ले जाय जिसका देवोंने आस्वादन किया है, जिसे सब अमर्त्योंने विचार द्वारा रचा है और 'द्यौष्पिता', जो जनिता है, सत्यका सिञ्चन कर रहा है ।''

 

स तू नो अग्निर्नयतु प्रजानअच्छा रत्नं देवभक्तं यदस्य ।

धिया यद् विश्वे अमृता अकृष्वन् द्यौष्पिता जनिता सत्यमुक्षन् ।।

                     (ऋ. 4.1. 10 )

 

 

यही है पराशर द्वारा वर्णित अमरताका परम सुख जिसे अमरदेवकी सभी शक्तियोंने सत्यके विचारमें तथा इसकी प्रेरणामें अपना कार्य करके रचा है, और सत्यका सिञ्न स्पष्ट ही जलोंका सिञ्जन है जैसा कि 'उक्षन्' शब्दसे सूचित होता है, यह वही है जिसे पराशरने पहाड़ीके ऊपर सत्यकी सात नदियोंका  प्रसार कहा है  ।

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वामदेव अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे हमें इस महान्, प्रथम या सर्वोच्च शक्ति,. 'अग्नि,के जन्मके बारेमें कहता है, जो जन्म सत्यमें होता है, इसके जलोंमें, इसके आदिम घरमें होता है । 'प्रथम वह ( अग्नि ) पैदा हुआ जलोंके अंदर, बृहत् लोक ( स्व:) के आधारके अंदर, इसके गर्भ ( अर्थात् इसके वेदि-स्थान और जन्म-स्थान, इसके आदिम घर ) के अंदर; वह बिना सिर और पैरके था, अपने दो अंतोंको छिपा रहा था, वृषभकी मांदमें अपने आपको कार्यमें लगा रहा था ।'1 वृषभ है देव या पुरुष, उसकी मांद है सत्यका लोक, और अग्नि, जो 'द्रष्टृ-संकल्प'है, सत्य-चेतनामे कार्य करता हुआ लोकोंको रचता है; पर वह अपने दो अंतोंको, अपने सिर और पैरको, छिपाता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि उसके व्यापार पराचेतन तथा अवचेतन (Superconscient and  subconscient ) के बीचमें क्रिया करते हैं, जिनमें उसकी उच्चतम और निम्नतम अवस्थाएं क्रमश: छिपी रहती हैं, एक तो पूर्ण प्रकाशमें दूसरी पूर्ण अंधकारमें । वहाँसे फिर वह प्रथम और सर्वोच्च शक्तिके रूपमें आगे प्रस्थान करता है और सुखकी सात शक्तियों, सात प्रियाओंकी, क्रियाके द्वारा वह वृषभ या देवके यहाँ पैदा हो जाता है । 'प्रकाशमय ज्ञान द्वारा जो प्रथमशक्तिके रूपमें आया था, वह ( अग्नि ) आगे गया और सत्यके स्थानमें, वृषभकी मांदमें, वांछनीय, युवा, पूर्ण शरीरवाला, अतिशय जगमगाता हुआ, वह पहुंच गया; सात प्रियाओंने उसे देवके यहाँ पैदा कर दिया ।'2

 

इसके बाद ऋषि आता है मानवीय पितरोंके महाकार्यकी ओर, अस्माकमत्र पितरो मनुष्याः, अभि प्र सेदुऋॅतमाशुषाणाः । ''यहाँ हमारे मानव पितर सत्यको खोजना चाहते हुए इसके लिये आगे बढ़े; अपने आवरक कारागारमें बन्द पड़ी हुई चमकीली गौओंको, चट्टानके बाड़में बन्द अच्छी दुधार गौओंको वे ऊपरकी तरफ ( सत्यकी ओर ) हाँक ले गये, उषाओंने उनकी पुकारका उत्तर दिययां ।13। उन्होंने पहाड़ीको विदीर्ण कर दिया और उन्हें ( गौओंको ) चमका दिया; अन्य जो उनके चारों तरफ थे उन 

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1. स जायत प्रथम: पस्त्यासु महो बुध्नेरजसो अस्य योनौ ।

       अपादशीर्षा गुहमानो अन्ताऽऽयोयुवानो वृषभस्य नीळे ।। ( ऋ. 4.1. 11 ) 

    2. प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्याँ ॠतस्य योना वृषभस्य नीळे ।

      स्पार्हो युवा वपुष्यो विभावा सप्त प्रियासोऽजनयन्त वृक्ष्णे ।। ( ऋ. 4.1.12

    3. अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेसुॠॅतमाशुषाणा : ।

      अश्मव्रजा: सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवाना: ।। (ॠ. 4.1.13 )

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सबने उनके इस (सत्य) को खुले तौर पर उद्घोषित कर दिया; पशुओंको हांकनेवाले उन्होंने कर्मोंके कर्त्ता ( अग्नि ) के प्रति स्तुति-गीतोंका गान किया, उन्होंने प्रकाशको पा लिया, वे अपने विचारोंमें जगमगा उठे ( अथवा, उन्होंने अपने विचारों द्वारा कार्यको पूर्ण किया ) 1 ।14। उन्होंने उस मनसे जो प्रकाशकी (गौओंकी, गव्यता मनसा ) खोज करता है, उस दृढ़ और निबिड़ पहाड़ीको तोड़ डाला जिसने प्रकाशमयी गौओंको घेर रखा था; इच्छुक आत्माओंने दिव्य शब्द द्वारा, वचसा दैव्येन, गौओंसे भरे हुए दृढ़ बाड़ेको खोल दिया2 15 ।''  ये अंगिरसोंके कथानकके सामान्य आलंकारिक वर्णन हैं, पर अगली ऋचामें वामदेव अपेक्षाकृत और भी अधिक रहस्यमयी भाषा-का प्रयोग करता है । ''उन्होंने प्रीणयित्री गौके प्रथम नामको मनमें धारण किया, उन्होंने माताके त्रिगुणित सात उच्च ( स्थानों ) को पा लिया; मादा गायोंने उसे जान लिया और उन्होंने इसका अनुसरण किया, प्रकाशरूपी गौको शानदार प्राप्ति ( या शोभा ) के द्वारा एक अरुण वस्तु आविर्भूत हुई ।

 

 ते मन्वत प्रथमं नाम धेनोस्त्रिः  सप्त मातु : परमाणि विन्दन् ।

 तज्जानतीरभ्यूनूषत व्रा आविर्भुवदरुणीर्यशसा गो: । । ( ॠ. 4.1.16 )

 

यहाँ माता है 'अदिति', असीम चेतना, जो 'धेनु' या प्रीणयित्री गौ है, जिसके साथ अपने सप्तगुण प्रवाहके रूपमें सात सरिताएं हैं, साथ ही वह प्रकाशकी 'गौ' भी है जिसके साथ उषाएं है, जो उसके शिशुओंके रूपमें हैं; वह अरुण वस्तु है दिव्य उषा और गायें या किरणें हैं उसके खिलते हुए प्रकाश । जिस माताके त्रिगुणित सात परम स्थान हैं जिन्हें उषाएं या मानसिक प्रकाश जानते हैं और उनकी ओर गति करते हैं, उस माताका प्रथम नाम होना चाहिये परम देवका नाम या देवत्व, वह देव है असीम सत्ता और असीम चेतना और असीम सुख, और तीन वेदि-स्थान हैं तीन दिव्य लोक जिन्हें इसके पहले इसी सूक्तमें अग्निके तीन उच्च जन्म कहा3 है, जो पुराणोंके 'सत्य', 'तपस्' और 'जन' हैं, जो देवकी इन तीन असीमताओंके अनुरूप हैं और इनमेंसे प्रत्येक अपने-अपने तरीकेसे हमारी

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1. से मर्मृजत ददृवांसो अद्रिं तदेषामन्ये अभितो विवोचन् ।

  पश्वयन्त्रासो अभि कारमर्चन् विदन्त ज्योतिश्चकृपन्त धीभि: ।।

(ऋ. 4.1.14)

 

2. ते गव्यता मनसा दृध्रमुमुब्धं गा येमानं परि षन्तमद्रिम् ।

  दृळह्ं नरो वचसा दैव्येन व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः ।। (ॠ. 4.1.15 )

3. देखो मंत्र ७,-''त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्ने: ।''

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सत्ताके सप्तगुण तत्त्वको पूर्ण करता है । इस प्रकार हम अदितिके त्रिगुणित सात स्थानोंकी श्रेणियां पाते हैं, जो सत्यकी दिव्य उषामेंसे खुलकर अपनी संपूर्ण शोभामें प्रकट हो गयी हैं1 । साथ ही हम देखते हैं कि मानवीय पितरों द्वाराकी गयी प्रकाश तथा सत्यकी उपलब्धि भी एक आरोहण है, जो परम तथा दिव्य पदकी अमरताकी तरफ होता है, सर्वस्रष्ट्री असीम माता के प्रथम नामकी ओर होता है, इस आरोहण करनेवाली सत्ताके लिये उस (माता ) के जो त्रिगुणित सात उच्च पद हैं उनकी ओर होता है और सनातन पहाड़ी (अद्रि) के सर्वोच्च सम-प्रदेशों (सानु) की ओर होता है ।

 

यह अमरता वह आनंद है जिसका देवोंने आस्वादन किया है, जिसके विषयमें वामदेव हमें पहले ही बतला चुका है कि यह वह वस्तु है जिसे  'अग्नि'को यज्ञ द्वारा सिद्ध करना है, यह वह सर्वोच्च सुख है जो ऋ 1 .20.7 के अनुसार अपने त्रिगुणित सात आनन्दोंसे युक्त है । क्योंकि आगे वह कहता है : ''अन्धकार नष्ट हो गया, जिसका आधार हिल चुका था; द्यौ चमक उठा ( रोचत द्यौ:, अभिप्राय प्रतीत होता है स्व:के तीन प्रकाश-माय लोकों, दिवो रोचनानि, की अभिव्यक्तिसे ); दिव्य उषाका प्रकाश ऊपर उठा; सूर्य ( सत्यके ) विस्तीर्ण क्षेत्रोंमें प्रविष्ट हुआ, मर्त्योंके अन्दर सरल तथा कुटिल वस्तुओंको देखता हुआ2 |17। इसके पश्चात् सचमुच वे जाय गये और वे ( सूर्य द्वारा किये गये कुटिलसे सरलके, अनृतसे सत्यके पार्थक्य द्धारा ) विशेष रूपसे देखने लगे; तभी वस्तुत: उन्होंने उनके अन्दर उस सुखको थामा जिसका द्युलोकमें आस्वादन किया गया है, रत्न धारयन्त द्युभक्तम् । (हम चाहते हैं कि ) सबके सब देव हमारे सब घरोंमें होवें, हे मित्र, हे वरुण, वहाँ हमारे विचारके लिये सत्य होवे3।''  विश्वे विश्वासु दुर्यासु देथा मित्र धिये वरुण सत्यमस्तु ।।18।। यह स्पष्ट वही बात है जो पराशर शाक्त्य द्वारा इसकी अपेक्षा भिन्न भाषामें व्यक्तकी जा चुकी है,

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1. इसी विचार को मेधातिथि काण्व ने ( ॠ, 1.20.7 में ) दिव्य सुखके त्रिगुणित सात

  आनंदों, रत्नानि त्रि: साप्तानि, के रूपमें व्यक्त किया है, अथबा यदि और अधिक

  शाब्दिक अनुवाद लें, तो इस रूपमें कि आनन्द जो अपनी सात-सातकी तीन श्रेणियोंमें

  है, जिनमेंसे प्रत्येकको ॠभु अपने पृथकू-पृथक् तथा ,पूर्ण रूपमें प्रकट कर देते हैं,

  एकमेक सुशस्तिमि:

 

2. नेशत् तमो दूधितं रोचत द्यौरुद् देव्या उषसो भानुरर्त ।

  आ सूर्यो बृहतस्तिष्ठद्ज्राँ ॠजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् । । ( ऋ. 4.1.17 ) 

 

3.आदित् पश्चा वुदुधाना व्यरुपन्नादिद् रत्नं धारयन्त द्युभक्तम् ।

 विश्वे विश्वासु दुर्यासु देवा मित्र धिये वरुण सत्यभस्तु ।। (ऋ. 4.1.18 )

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अर्थात् सत्यके विचार और प्रेरणा द्वारा सारी सत्ताकी अभिव्याप्ति हो जाना और उस विचार तथा प्रेरणामें सब देवत्वोंका व्यापार होने लगना जिससे हमारी सत्ताके अंग-अंगमें दिव्य सुख और अमरताका सृजन हो जावे ।

 

सूक्त समाप्त इस प्रकार होता है, 'मैं अग्निके प्रति शब्द बोल सकूं, जो अग्नि विशुद्ध रूपमें चमक रहा है, जो हवियोंका पुरोहित (होता ) है, जो यज्ञमें सबसे बड़ा है, जो हमारे पास सब कुछ खानेवाला है; वह दोनों- को हमारे लिये निचोड़ देवे, प्रकाशकी गौओंके पवित्र ऊधस्को और आनन्दके पौदे ( सोम ) के पवित्रीकृत भोजनको जो सर्वत्र परिषिक्त है1 ।19। वह यज्ञके सब अधिपतियोंकी (देवोंकी ) असीम सत्ता ( अदिति ) है और सब मनुष्योंका अतिथि है; (हम चाहते हैं कि ) अग्नि जो क्यने अन्दर देवोंकी वृद्धिशील अभिव्यक्तिको स्वीकार करता है, जन्मोंको जाननेवाला है, सुखका देनेवाला होवे ।20'2

 

चतुर्थ मण्डलके दूसरे सूक्तमें हम बहुत ही स्पष्ट तौर पर और अर्थ- सूचक रूपसे सात ऋषियोंकी समरूपता पाते है जो ऋषि कि दिव्य अंगिरस् हैं तथा मानवीय पितर हैं । उस संदर्भसे पहले, 4.2.11 से 14 तक ये चार ऋचाएं आती हैं जिनमें सत्य तथा दिव्य सुखकी अन्वेषणाका वर्णन है । 'जो ज्ञाता है वह ज्ञान तथा अज्ञानका, विस्तृत पृष्ठोंका तथा कुटिल पृष्ठोंका जो मर्त्योंको अन्दर बन्द करते हैं, पूर्णतया विवेक कर सके; और हे देव, संतानमें सुफल होनेवाले सुखके लिये 'दिति'को हमें दे डाल और 'अदिति'की रक्षा कर ।' 3 यह ग्यारहवीं ॠचा अपने अर्थमें बड़ी ही अद्भुत है । यहाँ हम ज्ञान तथा अज्ञान की विरोधिता पाते हैं जो वेदान्तमें मिलती है; और ज्ञानकी समता दिखायी गयी है विशाल खुले पृष्ठोंसे जिनका वेदमें बहुधा संकेत आता है; ये वे विशाल पृष्ठ हैं जिनपर वे आरोहण करते हैं जो यज्ञमें श्रम करते हैं और वे वहाँ अग्निको 'आत्मानन्दमप' (स्व-जेन्य ) रूपमें बैठा पाते हैं ( 5. 7. 5 ); वे हैं विशाल अस्तित्व जिसे वह अपने निजी शरीरके लिये रचता है ( 5 .4. 6 ), वे सम-विस्तार हैं,  निर्बाध बृहत् हैं ।

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1.  अच्छा वोचेय शुशुचानमग्निं होतारं विश्वभरसं यजिष्ठम् ।

   शुच्यूधो अतृणन्न गवामन्धो न पूतं परिषिक्तमंशोः ।। (ऋ 4.1.19 )

2. विश्वेषमदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम् ।

  अग्निर्दैवानामव आवृणानः सुमृळीको भवतु जातवेदा: ।। 4.1.20

3. चित्तिमचित्ति चिनवद् वि विद्वान् पृष्ठेव वीता वृजिना च मर्तान् ।

  राये च न: स्वपत्याय देव दितिं च रास्वादितिमुरुष्य ।। 4.2,11

२७१ 


इसलिये जिसे हम सत्यके लोकमें पहुंचकर पाते हैं, वह देवकी असीम सत्ता ही है और यह अदिति माताके त्रिगुणित सात उच्च स्थानोंसे युक्त है, 'अग्नि'के तीन जन्मोंसे युक्त है, जो अग्नि असीमके अंदर रहता है;  अनन्ते अन्त: (4.1.7 ) । दूसरी तरफ अज्ञानकी तद्रूपता दिखायी गयी है कुटिल या विषम पृष्ठोंसे जो मर्त्योंको अंदर बन्द करते हैं और इसीलिये यह सीमित विभक्त मर्त्य सत्ता है । इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि यह अज्ञान ही अगले मंत्रार्धका दिति है, दितिं च रास्व अदितिम् उरुष्य, और ज्ञान है अदिति'दिति'का, जिसे दनु भी कहा गया है, अर्थ है विभाग; और बाधक शक्तियां या 'वृत्र'  हैं उसकी संतानें जिन्हें दनवः, दानवाः, दैत्या: कहा गया है, जब कि अदिति है वह सत्ता जो अपनी असी-मतामें रहती है और देवोंकी माता है । ऋषि एक ऐसे सुखकी कामना कर रहा है जो संतानमें अर्थात् दिव्य कार्यों और उनके फलोंमें सुफल हो; और यह सुख प्राप्त किया जाना है एक तो इस प्रकार कि उन सब ऐश्वर्योंको जीता जाय जिन्हें हमारी विभक्त मर्त्य सत्ताने अपने अंदर धारण कर रखा है पर 'वृत्रों' तथा 'पणियो'ने जिन्हें हमसे छिपा रखा है, और दूसरे इस प्रकार कि उन्हें असीम दिव्य सत्तामें धारित किया जाय । उन ऐश्वर्योंके धारणको हमें अपनी मानवीय सत्ताकी सामान्य प्रवृत्तिसे, 'दनु' या 'दिति'के पुत्रोंकी अधीनतासे बचाना होगा, रक्षित रखना होगा । यह विचार स्पष्ट ही ईश उपनिषद्के उस विचारसे मिलता है जिसमें यह कहा गया है कि ज्ञान (विद्या ) और अज्ञान (अविद्या ), एकता और बहुरूपता ये दोनों ब्रह्ममें निहित हैं और इनका इस प्रकार धारण करना अमरताकी प्राप्तिकी शर्त है ।2

 

इसके बाद हम सात दिव्य द्रष्टाओं पर आते हैं । ''अपराजित द्रष्टाओं-ने द्रष्टाको (देवको, अग्निको ) कहा, उसे अंदर मानव सत्ताके धरोमें धारण करते हुए; यहाँसे (इस शरीरधारी मानव सत्तासे ) हे अग्ने ! कर्म द्वारा अभीप्सा करता हुआ (अर्य:) , तू अपनी उन्नतिशील गतियोंसे उन्हें देख 

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1. 'वृजिना'का अर्थ है कुटिल और यह वेदमें अतृतकी कुटिलताको सूचित करनेके लिये 

.   प्रयुक्त हुआ है जो सत्यकी सरलता (ॠजुता)से विपरीत है, पर यहां कवि स्पष्ट ही

  अपने मनके अन्दर 'वृज्'के धात्वर्थको रखे हुए है, अर्थात् पृथक् करना, पर्दा डालकर

  विभक्त करना, और इससे बने विशेषण-शब्द 'वृजिन'का यह शाव्दिक अर्थ ही 'मर्तान्

  को विशेषित करता है ।

    2. विद्याञ्चाविद्याग्च यस्तद् वेदोभयं सह ।

      अविद्याया मृत्युं तीर्त्या विद्ययाइमृतमश्नुते ।। ईश. 1 1

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सके जिनका तुझे दर्शन (Vision) प्राप्त करना चाहिये, जो सबसे अति- क्रान्त, अद्भुत हैं, (देवके देवत्व हैं) ।"

 

कविं शशासु: कवयोऽदब्धा:, निधारयन्तो दुर्यास्वायो: ।

अतस्त्वं इश्यां अग्न एतान् पड्भि: पश्येरद्भुतां अर्य एवं: ।। (4.2.12 )

 

 

अब यह पुनः देवत्वके दर्शन (Vision) की यात्रा है । ''तू, हे अग्ने !  सर्वाधिक युवा शक्तिवाले ! उसके लिये जो शब्द का गान करता है और सोमकी हवि देता है और यज्ञका विधान करता है, (उस यात्रामें ) पूर्ण पथ-प्रदर्शक है । उस आरोचमानके लिये जो कर्मको पूर्ण करता है, तू सुख ला, जो सुख उसके आगे बढ़नेके लिये बृहत् आनंदसे युक्त हो, कर्मके कर्त्ताको (या, मनुष्यको) तुष्टि देनेवाला हो (चर्षणिप्रा: ) ।13|1  अब ओ अग्ने ! उस सबको जिसे हमने अपने हाथों और पैरोंसे और अपने शरीरोंसे रचा है, सच्चे विचारक (अंगिरस्) इस रूपमें कर देते हैं, मानो कि यह तेरा रथ है, जो दो भुजाओंके (द्यौ और पृथिवीके, भुरिजो: ) व्यापार द्वारा बना है । सत्यको अधिगत करना चाहते हुए उन्होंने इसके प्रति अपना मार्ग बना लिया है, (या इस सत्य पर वश प्राप्त किया है ) ऋतं येमु: सुध्य आशुषाणा:।14।2  अब उषा माताके सात द्रष्टा, (यज्ञके) सर्वो-त्कृष्ट विनियोक्ता, हम पैदा हो जायं जो अपने-आपमें देव हैं; हम अंगिरस्, द्यौ पुत्र, बन जायं, पवित्र रूपमें चमकते हुए हम धन-दौलतसे भरपूर पहाड़ीको तोड़ डालें ।15।''3  यहाँ हम बहुत ही स्पष्ट रूपमें सात दिव्य द्रष्टाओंको इस रूपमें पाते हैं कि वे विश्व-यज्ञके सर्वोत्तम विधायक हैं और इस विचारको पाते हैं कि मनुष्य ये सात द्रष्टा ''बन जाता है'', अर्थात् वह उन द्रष्टाओंको अपने अंदर रचता है और स्वयं उनके रूपमें परिणत हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे वह द्यौ और पृथिवी तथा अन्य देव बन जाता है, अथवा जैसा इसे दूसरे रूपमें यों प्रतिपादित किया गया है कि वह अपनी स्वकीय सत्तामें दिव्य जन्मोंको पैदा कर लेता है, रच लेता है या निर्मित कर लेता है, (जन्, कृ, तन् ) । 

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 1. त्वमग्ने वाधते सुप्रणीति: सुतसोमाय विधते यविष्ठ ।

   रत्नं भर शशमानाय घृष्वे पृथु श्चन्द्रमसे चर्षणिप्रा: ।।        (4.2.13)

 2. अधा ह यद् वयमग्ने त्वाया षड्भिर्हस्तैभिश्चकृमा तनूभि: ।

       रथं न क्रन्तो अपसा भुरिजोॠॅतं येमुः सुध्य आशुषाणा: ।।   (4.2.14) 

     3. धा मातुरुषस: सप्त विप्रा जायेमहि प्रथमा वेबसो नून् ।

       दिवस्पुत्रा अङ्गिरसो भवेमाडद्रिं रुजेम धनिन शचन्त: ।।     (4.2.15)

२७३ 


आगे मानवीय पितरोंका उदाहरण इस रूपमें दिया गया है कि उन्होंने इस महान् ''बन जाने''के और इस महाप्राप्ति व महाकार्यके आदिम आदर्श (नमूने) को उपस्थित किया है । ''अब भी, हे अग्ने ! जैसे हमारे उत्कृष्ट पूर्व पितरोंने, सत्यको अघिगत करना चाहते हुए, शब्दको अभिव्यक्त करते हुए, पवित्रता और प्रकाशकी ओर यात्राकी थी; उन्होंने पृथिवीको  (भौतिक सत्ताको) तोड़कर उनको जो अरुण थीं (उषाओंको, गौओंको ) खोल दिया ।16।1 पूर्ण कर्मोंवाले तथा पूर्ण प्रकाशवाले, दिव्यताओंको पाना चाहते हुए वे देव जन्मोंको लोहेके समान घड़ते हुए ( या दिव्य जन्मोंको लोहेके समान घड्ते हुए ), 'अग्नि'को एक विशुद्ध ज्वाला बनाते हुए, 'इन्द्र'को बढ़ाते हुए, प्रकाशके विस्तारको (गौओंके विस्तारको, गव्यम् ऊर्वम् ) पहुच गये और उन्होंने उसे पा लिया ।17।2 अंदर जो देवों के जन्म हैं वे अन्तर्दर्शन  ( Vision ) में अभिव्यक्त हो गये, मानो ऐश्वर्योंके खेतमें गौओंके झुण्ड हों, ओ शक्तिशालिन् ! ( उन देवोंने दोनों कार्य किये ). मर्त्योंके विशाल सुखभोगोंको (या उनकी इच्छाओंको ) पूर्ण किया और उच्चतर सत्ताकी वृद्धिके लिये भी अभीप्सुके तौर पर कार्य किया ।

 

   आ थूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देचानां यज्जनिमान्त्युग्र ।

   मर्तानां चिदुर्वशीरकृप्रन्, वृधे चिदर्य उपरस्थायोः ।।       (ऋ. 4.2.18 )

 

स्पष्टही यह इस द्विविध विचारकी पुनरुक्ति है, जो दूसरे शब्दोंमें रख दी गयी है, कि दितिके ऐश्वर्योंको धारण करना और फिर भी अदितिको सुरक्षित, रखना । ''हमने तेरे लिये कर्म किया है, हम कर्मोंमें पूर्ण हो गये हैं,  खुली चमकती हुई उषाओंने सत्यमें अपना घर आयत्त कर लिया है,  ( या सत्यके चोगेसे अपने आपको आच्छादित कर लिया है ), अग्निकी परि-पूर्णतामें और उसके बहुगुणित आनंदमें, अपनी संपूर्ण चमकसे युक्त जो देवकी चमकती हुई आँख है, उसमें ( उन्होंने अपना धर बना लिया है ) ।19।'' 3

 

ऋचा 4.3.11 में फिर अंगिरसोंका उल्लेख आया है, और जो वर्णन इस ॠचा तक हमें ले जाते हैं उनमेंसे कुछ विशेष ध्यान देने योग्य हैं; क्योंकि 

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1.  अधा यथा न: पितर: परास: प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणा : ।

   शुचीदयन् दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अएणीरप वन् ।। ( 4.2.16 ) 

3. सुकर्माण: सुरुचो देवयन्तोऽयो न देवा जनिमा धमन्तः ।

   शुचन्तो अग्निं ववृधन्त इन्द्रमूवं गव्यं परि षदन्तो अग्मन् ।। ( ऋ. 4.2.17 )

3.  अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः ।

   अनूनमग्निं पुरुधा सुश्चन्द्रं देवस्य मर्मृजतश्चारु चक्षुः ।। ( ऋ. 4.2.19 )

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इस बातको जितना दोहराया जाय उतना थोड़ा है कि वेदकी कोई भी ॠचा तबतक भली भांति नहीं समझी जा सकती जबतक कि इसका प्रकरण न मालूम हो, सूक्तके विचारमें उसका क्या स्थान है यह न मालूम हो, उसके पहले और पीछे जो कुछ वर्णन आता है वह सब न मालूम हो । सूक्त इस प्रकार प्रारंभ होता है कि मनुष्योंको पुकारकर कहा गया है कि वे उस 'अग्नि' को रचे जो सत्यमें यज्ञ करता है, उसे उसके सुनहरी प्रकाशके रूपमें रचे, (हिरष्यरूपम्, हिरष्य सर्वत्र सत्यके सौर प्रकाश, ॠतं ज्योति:, के लिये प्रतीकके तौर पर आया है ) इससे पहले कि अज्ञान अपने-आपको रच सके, पुरा तनयित्नोरचित्तात् ( 4.3.1 ), उसे रच लें । इस अग्निदेवको कहा गया है कि वह मनुष्यके कर्मके प्रति और इसके अंदर जो सत्य है उसके प्रति जागृत हो, क्योंकि वह स्वयं 'ॠतचित्' है, सत्य-चेतनामय है, विचारको यथार्थ रूपसे धारण करनेवाला है, ॠतस्य बोधि ॠतचित् स्वाधीः (4.3.4) --क्योंकि सारा अनृत केवल सत्यका एक अयथार्थ धारण ही है । उह मनुष्यके अंदरके सब दोष और पाप और न्यूनताओंको विभिन्न देवत्वों या परम देवकी दिव्य शक्तियोंको सौंपना होता है, जिससे कि उन्हें दूर किया जा सके और अंतत: मनुष्यको असीम माताके सम्मुख निर्दोष घोषित किया जा सके-अदितये अनागस:, ( 1.24.15 ), अथवा उसे 'असीम सत्ता'के लिये, जैसा कि इसे अन्यत्र प्रकट किया गया है, निर्दोष घोषित किया जा सके ।

 

इसके बाद नौवीं तथा दसवीं ॠचामें हम, अनेकविध सूत्रोंमें प्रकट किये गये, संयुक्त मानवीय तथा दिव्य सत्ताके, 'दिति' और 'अदिति'के विचारको पाते हैं जिनमेसे पिछली अर्थात् अदिति अपने साथ पहली अर्थात् दितिको प्रतिष्ठित करती है, उसे नियंत्रित और अपने प्रवाहसे आपूरित करती है । 'सत्य जो कि सत्यसे नियमित है, उसे मैं चाहता हूँ ( अभिप्राय है, मानवीय सत्य जो दिव्य सत्यसे नियमित है ), गौ की अपक्व वस्तुएँ और उसकी परिपक्य तथा मधुमय देन ( पुनः, अभिप्राय यह होता है कि अपूर्ण मानवीय फल तथा विराट् चेतना व सत्ता के पूर्ण और आनंदमय दिव्य फल ) एक साथ हों; वह (गौ ) काली ( अंधेरी और विभक्त सत्ता, दिति ) होती हुई आधारके चमकीले जल द्वारा, सहचरी धाराओंके जल द्वारा (जामर्येण पयसा)  पालित होती है ।9।1 सत्यके द्वारा वृषभ व नर, 'अग्नि' अपने 

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1,  ॠतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत् पक्वमग्ने ।

       कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ।। (ॠ. 4.3.9)

२७५ 


पृष्ठोंके जलसे सिक्त हुआ, न कांपता हुआ, विस्तारको (विशाल स्थान या अभिव्यक्तिको ) स्थापित करता हुआ विचरता है; चितकबरा बैल विशुद्ध चभकीले स्तनको दुहता है ।1०|'1 उस एककी जो मूलस्रोत है, धाम है, आधार है, चमकीली सुफेद पवित्रता और त्रिविध लोकमें अभिव्यक्त हुए जीवनकी चितकबरी रंगत-इन दोनोंके बीच प्रतीकात्मक विरोषका वर्णन वेदमें जगह-जगह आता है; इसलिये चितकबरे बैलका और विशुद्ध चमकीले ऊधस् या जलोंके स्रोतका यह अलंकार, अन्य अलंकारोंकी तरह, केवल मानवीय जीवनके बहुरूप, अनकविध अभिव्यक्तिकरणके विचारको ही दोहराता है,--ऐसे मानवीय जीवनके जो पवित्र, अपनी क्रियाओंमें शान्तियुक्त एवं सत्य और असीमताके जलोंसे परिपुष्ट है ।

 

अंतमें ऋषि प्रकाशमय गौओं और जलोंका इकट्ठा वर्णन ( जैसा वर्णन वेदमें बार-बार और जगह-जगह हुआ है ) करने लगता है,  "सत्यके द्वारा अंगिरसोंने पहाड़ीको तोड़कर खोल दिया और उछालकर अलग फेंक दिया और गौओंके साथ वे संयुक्त हो गये; उन मानवीय आत्माओंने सुखमयी उषामें अपना निवास बनाया 'स्व:' अभिव्यक्त हो गया जब कि अग्नि पैदा हुआ ।11।2 हे अग्ने ! सत्यके द्वारा दिव्य अमर जल, जो अक्षत थे, अपनी मधुमय बासे युक्त, एक शाश्वत प्रवाहमें प्रवाहित हो पड़े, जैसे कि अपनी सरपट चालमें तेजीसे दौड़ता हुआ घोड़ा ।12।''3 ये चार (9.10.11.12 ) ऋचाएँ वास्तवमें अमरता-प्राप्तिके महाकार्य की प्रारंभिक शर्तोको बतानेके लिये अभिप्रेत हैं । ये महान् गाथाके प्रतीक हैं,  रहस्यवादियोंकी उस गाथाके जिसके अंदर उन्होंने अपने अत्युच्च आध्यात्मिक अनुभवको अधार्मिकोंसे छिपाकर रखा था, पर जो, शोकसे कहना पड़ता है, उनकी संततिसे भी काफी अच्छी तरहसे छिपा रहा । ये रहस्यमय प्रतीक थे, जिनसे उस सत्यको व्यक्त करना अभिप्रेत था जिसकी उन्होंने अन्य सबसे रक्षाकी थी और जिसे वे केवल दीक्षितको, ज्ञानीको, द्रष्टाको देना चाहते थे, इस बातको वामदेव स्वयं इसी सूक्तकी अंतिम ॠचामें अत्यधिक सरल 

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 1. ॠतेन हि ष्मा वृषभश्चिदक्त: पुमां अग्नि: पयसा पृष्ठघेन ।

   अस्पन्दमानो अचरद् वयोधा वृषा शुक्रं दुदुहे पृश्निरुधः ।। (ऋ. 4.3.10

 2. ऋतेनाद्रिं व्यसन् भिदन्तः समङिरसो नवन्त गोभि: ।

   शुन नर: परि षदन्नुषासमावि: स्वरभवज्जाते अग्नौ ।। (ऋ. 4.3.11 ) 

 3. ॠतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने ।

   वाजी न सर्गेषु प्रस्तुभान: प्र सदमित् स्रवितवे दधन्युः ।।   (ऋ. 4.3.12)  ।

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और जोरदार भाषामें हमें बताता है--''ये सब रहस्यमय शब्द हैं जिनका मैंने तेरे प्रति उच्चारण किया है, जो तू ज्ञानी है, हे अग्ने ! हे विनियोजक ! जो आगे ले जानेवाले शब्द हैं, द्रष्टा-ज्ञानके शब्द हैं, जो द्रष्टाके लिये अपने अभिप्रायको प्रकट करते है,--मैंने उन्हें अपने शब्दों और अपने विचारोंमे प्रकाशित होकर बोला है ।"

 

एता विश्वा विदुषे तुभ्यं वेधो नीथान्यग्ने निण्या वचांसि ।

निवचना कवये काव्यान्यशंसिषं मतिभि र्विप्र उक्थेः ।।  (ऋ. 4.3.16 )

 

ये रहस्यमय शब्द हैं, जिन्होंने सचमुच रहस्यार्थको अपने अंदर छुपा रखा है, जो रहस्यार्थ पुरोहित, कर्मकाण्डी, वैयाकरण, पंडित, ऐतिहासिक, गाथाशास्त्री द्वारा उपेक्षित और अज्ञात ही रहा है, जिनके लिये वे शब्द अंधकारके शब्द या अस्तव्यस्तताकी मुहरें ही सिद्ध हुए हैं, न कि वैसे जैसे कि वे महान् प्राचीन पूर्वपितरों और उनकी प्रकाशपूर्ण संततिके लिये थे, निण्या वचांसि नीथानि निवचना काव्यानि (अर्थात् रहस्यमय शब्द जो आगे ले जानेवाले हैं, अपने अभिप्रायको प्रकट कर देनेवाले, द्रष्टा-ज्ञानसे युक्त शब्द ) ।

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